पति-पत्नी के रिश्ते तन से नहीं, मन से निभाएं...


परिवारों में रिश्ते बनते भले ही शरीर से हैं, लेकिन रिश्तों को निभाने के लिए शरीर से अलग हटना पड़ता है। भारतीय परिवारों में भी बदलते दौर में एक बड़ा परिवर्तन आया है। हमारे यहां पहले रिश्तों को महत्व दिया गया, शरीर को गौण रखा गया।
इसीलिए भारत के परिवार के सदस्य एक-दूसरे से भावनात्मक रूप में रहते हैं। धीरे-धीरे घर-गृहस्थी का विस्तार हुआ। बाहर की दुनिया में लोगों का समय अधिक बीतने लगा।
लक्ष्य परिवार से हटकर संसार हो गया और यहीं से शरीर का महत्व बढ़ गया।
जैसे ही हम रिश्तों में शरीर पर टिकते हैं, हमारा आदमी या औरत होना भारी पड़ने लगता है, उनका अहं टकराने लगता है। बाप और बेटे का एक रिश्ता है। जब तक इसमें केवल रिश्ता काम कर रहा होता है, प्रेम और सम्मान भरपूर रहेगा, लेकिन जैसे ही दोनों अपने शरीर पर टिकेंगे, तो भीतर का पुरुष जाग जाता है और यहीं से फिर बाप-बेटे नहीं, दो पुरुष नजर आने लगते हैं।
ठीक यही स्थिति पति-पत्नी के बीच बन जाती है। स्त्री हो या पुरुष, जब तक रिश्ते की डोर से बंधे हैं, दोनों एक-दूसरे के प्रति अत्यधिक सम्मानपूर्वक रहेंगे, लेकिन इनके भीतर का आदमी, औरत जागते ही रिश्ते बोझ बन जाते हैं।
यही स्थिति हर संबंध में काम करती है। पत्नी के रूप में रिश्ता एक दायित्व, एक स्नेह का होता है, लेकिन यदि वह स्वयं भी अपने भीतर की स्त्री को ही जाग्रत कर ले, पुरुष भी केवल शरीर ही देखने लगे, तो फिर सारी अनुभूतियां कामुकता, अपेक्षा, महत्वाकांक्षा और लेन-देन पर टिक जाती हैं।
जिन रिश्तों में शरीर गौण हों और भावनाएं प्रमुख हों, वहां जिंदगी मीठी होने लगती है। यह सही है कि शरीर के बीज से ही रिश्ते अंकुरित होते हैं, लेकिन जो लोग वापस शरीर की ओर लौटेंगे, वे रिश्तों का वृक्ष नहीं बना पाएंगे।
रिश्तों से जुड़ने पर ऐसा लगता है, जैसे पत्थर में से मूर्ति संवारी गई। छुपा हुआ निखरकर आता है। हमें आज के दौर में यह ध्यान रखना होगा कि रिश्ते शुरू तो शरीर से हों, पर धीरे-धीरे शरीर से हटकर भावना, संवेदना, ममता, सम्मान और प्रेम पर जाकर टिकें।