2 खास रात्रियां..जिनमें भंग नहीं होता ब्रह्मचर्य!



अक्सर बोला और सुना जाता है कि पति-पत्नी का साथ एक नहीं सात जन्मों का होता है। यह बात भावनात्मक अधिक और व्यावहारिक कम लगती है। किंतु धर्मशास्त्रों में बताई विवाह परंपरा से जुड़ी कुछ खास बातें इस बात को सार्थक साबित करती है।

दरअसल, हिन्दू धर्म में विवाह एक संस्कार और गृहस्थी को धर्म माना गया है। धर्म के नजरिए से इसके पीछे पितृऋण और कुटुंब रक्षा के लिए संतान उत्पत्ति, खासतौर पर पुत्र प्राप्ति ही प्रमुख उद्देश्य है। जिसके द्वारा मृत्यु उपरांत भी पीढ़ी दर पीढ़ी श्राद्ध, यज्ञ, दान आदि द्वारा धर्म व पुण्य कर्म संचित किए जाते रहें।

वहीं इसमें मानवीय जीवन के व्यावहारिक पक्ष से जुड़ा पहलू भी साफ हैं। जिसके मुताबिक प्रेम को केन्द्र में रखकर मर्यादा के साथ स्त्री-पुरुष की इन्द्रिय कामनाओं को पूरा किया जा सके। जिससे भावनाओं में पवित्रता बनी रहे और वे पशुओं के समान व्यवहार से दूर रहें।

इस तरह विवाह संस्कार भाव शुद्धि के नजरिए से आध्यात्मिक तप के समान भी है। यही कारण है कि इसके तहत स्त्री-पुरुष के लिए विकार नहीं बल्कि शुद्ध विचार, संयम व त्याग भाव की प्रधानता के साथ संतान उत्पत्ति के लिये विशेष घडिय़ा नियत भी की गई है। जिसे गर्भाधान काल के रूप में शास्त्र सम्मत भोग भी माना गया है।

महाराज मनु के मुताबिक इन घडिय़ों के तहत कुछ विशेष रात्रियां और तिथियां नियत हैं। यहीं नहीं इनमें से भी दो विशेष रात्रियों या तिथियों में स्त्री से मिलन करने वाला गृहस्थ पुरुष भी ब्रह्मचारी माना गया है, यानी उसका ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहता है। जानते हैं ये शास्त्रोक्त तिथियां -

यह दो खास तिथियां या रात्रि स्त्रियों के ऋतुकाल यानी रजोदर्शन के पहले दिन से 16वीं रात्रि तक के काल में आती हैं। इन 16 में से पहली 4 रातें व ग्यारहवीं, तेरहवीं रात यानी कुल छ: रातें मिलन के लिए निषेध है। शेष 10 रातें मान्य हैं। इन गर्भाधान के लिए अमान्य 6 रातों व शेष मान्य 10 रातों में से भी 8 रातों को छोड़कर बाकी बची कोई भी 2 रातों (जिनमें भी पर्व यानी अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा एकादशी शामिल न हो) पर स्त्री से मिलन या सहवास करने वाले का ब्रह्मचर्य भंग नहीं माना जाता है।