मां तो बस मां होती है

मां तो बस मां होती है
बेहद छोटा पर उतना ही प्यारा शब्द है-मां। यह अपने भीतर ममता
का अथाह सागर समेटे हुए है। कहा जाता है कि जब ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की तो उसके लिए हर जगह खुद मौजूद होना संभव नहीं था। तो संसार की हिफाजत के लिए उसने मां को बनाया। मां के प्यार की कोई सीमा नहीं होती। वह बच्चे को बिना किसी शर्त के प्यार करती है और समस्त कमियों के साथ उसे सहर्ष स्वीकारती है। जगदगुरु आदि शंकराचार्य ने भी तो कहा है, ..कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि माता कुमाता न भवति (पुत्र तो कुपुत्र हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं होती)। सच, मां की ममता अनमोल होती है।
सहज है मातृत्व भाव
मातृत्व की भावना हर स्त्री में जन्मजात रूप से होती है। जन्म दिए बिना भी वह उसी शिद्दत से बच्चे को प्यार करती है, जैसा कि उसे जन्म देने वाली मां करती है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं,
लडकियों के मस्तिष्क की संरचना और उनमें में पाए जाने वाले प्रोजेस्ट्रॉन और एस्ट्रोजेन हॉर्मोन की वजह से उनमें शुरुआत से ही मातृत्व की भावना मौजूद होती है। तभी तो गुड्डे-गुडिया से खेलते हुए छोटी बच्चियां हूबहू वैसा ही व्यवहार करती हैं, जैसा कि एक मां अपने बच्चे के साथ करती है। अगर कोई स्त्री बच्चे को जन्म नहीं देती तो भी किसी दूसरे बच्चे के लिए उसके दिल में वैसा ही सहज प्यार होता है, जैसा कि एक मां के दिल में अपने बच्चे के लिए होता है। 45 वर्षीय आकाश जैन पेशे से वकील हैं। वह कहते हैं, हम सात भाई-बहन हैं और मैं सबसे छोटा हूं। जब मैं दो साल का था, तभी मेरी मां का निधन हो गया था। मेरी बडी भाभी ने ही मुझे पाला है। उनकी अपनी संतान नहीं है। उन्होंने कभी हम भाई-बहनों को मां की कमी महसूस नहीं होने दी।
एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत लतिका रॉय बताती हैं, मेरे जन्म के समय एनेस्थीसिया के गलत रिऐक्शन की वजह से मेरी मां जिंदगी भर के लिए बेडरिडन हो गई और इसके बाद वह लगभग दस वर्षो तक जीवित रहीं। वह बिस्तर पर लेटी भाव शून्य आंखों से हमें निहारती रहती थीं। उस समय हमारे घर में काम करने वाली शांति आंटी सही मायने में मेरे लिए यशोदा माता साबित हुई। मेरी बुआ बताती हैं कि उस वक्त उनका बच्चा भी छोटा था, इसलिए वह सगी मां की तरह मुझे फीड भी करती थीं। तब मेरे भइया चार साल के थे। हम दोनों भाई-बहनों को उन्होंने ही पाला है। हम उन्हें मां की तरह सम्मान देते हैं। छुट्टियों में मैं जब भी अपने होम टाउन कोलकाता जाती हूं तो वह मुझसे मिलने जरूर आती हैं और मेरे लिए अपने हाथों से बना सॉन्देश लाना नहीं भूलतीं।
अडॉप्शन का बढता चलन
स्त्री का स्वभाव ऐसा होता है कि वह प्यार देना और उसके बदले में प्यार पाना चाहती है। यह उसकी बेहद स्वाभाविक जरूरत है। अगर किसी वजह से उसे लाइफ पार्टनर का साथ नहीं मिल पाता तो भी उसके मन में बच्चे की चाहत बनी रहती है।। इसी वजह से अब महानगरों में मातृत्व की चाह रखने वाली अकेली स्त्रियों में भी बच्चा गोद लेने की प्रवृत्ति तेजी से बढ रही है। दिल्ली स्थित अडॉप्शन एजेंसी सिवारा (कोऑर्डिनेटिंग वोलंट्री अडॉप्शन रिसोर्स एजेंसी) के मुताबिक पिछले 20 वर्षो में केवल दिल्ली में ही 65 अकेली स्त्रियों ने बच्चों को गोद लिया है। स्त्रियों की आत्मनिर्भरता और आर्थिक आजादी की दृष्टि से यह बहुत बडा बदलाव है। इस संबंध में समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, यह सकारात्मक और स्वागत योग्य सामाजिक बदलाव है। अब अकेली स्त्रियां भी मातृत्व के सुख वंचित नहीं हैं। वे अपने ढंग से जीवन की खुशियां ढूंढ रही हैं।
अब नहीं रोती सिंड्रेला
चाहे अंग्रेजी परीकथाकी सिंड्रेला हो या हिंदुस्तानी लोककथा के सीत-बसंत या फिर पुरानी हिंदी फिल्मों में मासूम बच्चों पर जुल्म ढाती अरुणा ईरानी या बिंदु टाइप की सौतेली मांएं। कुल मिलाकर पूरी दुनिया में सौतेली मां की ऐसी क्रूर छवि पेश की गई है कि यह बात किसी भी इंसान के गले नहीं उतरती कि सौतेली मां भी बच्चे से प्यार कर सकती है। सौतेली मां बनने का निर्णय किसी भी स्त्री के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। इस संबंध में समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत आगे कहती हैं, मां तो सिर्फ मां होती है। परिवार और समाज उसे सौतेला बना देता है। परिवार के अन्य सदस्य हर पल तथाकथित सौतेली मां की ममता की परीक्षा ले रहे होते हैं।
इस संबंध में सॉफ्टवेयर इंजीनियर रजत शाह (परिवर्तित नाम) कहते हैं, पंद्रह वर्ष पहले बेटी के जन्म के दौरान मेरी पत्नी का निधन हो गया। मेरे मन में हमेशा इस बात का डर रहता था कि अगर मैं रीमैरिज करता हूं तो पता नहीं दूसरी स्त्री मेरी बेटी को मां का प्यार दे पाएगी या नहीं? खैर मैंने दूसरी शादी कर ली और अपने होमटाउन अहमदाबाद से दिल्ली शिफ्ट हो गया। मैं नहीं चाहता था कि कोई रिश्तेदार मेरी बेटी को उसकी दूसरी मां के बारे में कुछ भी बताए। मेरी बेटी अब पंद्रह वर्ष की हो चुकी है। वह अपनी मां के साथ बेहद खुश है।
भारतीय समाज तेजी से बदल रहा है। अब लोग एडजस्टमेंट से संबंधित समस्याओं के लिए काउंसलर से सलाह लेने में जरा भी संकोच नहीं बरतते। 31 वर्षीया इंटीरियर डिजाइनर आकांक्षा सिंह कहती हैं, मैंने अपनेतलाकशुदा कलीग से प्रेम विवाह किया है। उनकी पहली पत्नी से एक बेटा भी है, जिसकी उम्र तब 5 वर्ष थी। हम शादी करना चाहते थे, लेकिन हम दोनों के मन में यह सवाल था कि बच्चा अपनी नई मां के साथ एडजस्ट कर पाएगा या नहीं? इसीलिए शादी से पहले हम दोनों मैरिज काउंसलर के पास गए। यह हमारे लिए बहुत फायदेमंद साबित हुआ। उन्होंने बताया कि शादी से पहले मैं बच्चे से कैसे दोस्ती बढाकर उसका प्यार और विश्वास जीतने की कोशिश करूं। इसलिए शादी से पहले अकसर मैं उसे अपने साथ आउटिंग पर ले जाती थी। हमारी शादी को पांच साल हो चुके हैं। अब हर्ष पूरी तरह मेरा बेटा बन चुका है और मैं उसकी मां।
जब मां नहीं होती मां
सरोगेसी मातृत्व का एक ऐसा रूप है, जिसके सफेद-स्याह पहलुओं में बडी पेचीदगी है। जब कोई स्त्री संतान को जन्म देने में अक्षम होती है तो उसके पति के स्प‌र्म्स और पत्नी के एग्स को परखनली में निषेचित करवा के उसे इंजेक्शन द्वारा किसी अन्य स्त्री के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है। उस स्त्री का दायित्व केवल बच्चे को जन्म देने तक ही सीमित होता है। जन्म देने के बाद वह खुद को बच्चे से पूरी तरह अलग कर लेती है। ज्यादातर मामलों में आर्थिक रूप से लाचार स्त्रियां पैसे की खातिर अपनी कोख किराये पर देती हैं। ऐसे मामले में कई बार दोनों स्त्रियों के आपसी रिश्ते में जटिलता पैदा हो जाती है। इसी वजह से अब परिवार के भीतर भी स्त्रियां (बहन, भाभी, देवरानी-जेठानी आदि) सरोगेट मदर बन रही हैं। यहां एक मां दूसरी स्त्री की खुशी के लिए अपनी ममता कुर्बान कर देती है। मेघना गुलजार द्वारा निर्देशित फिल्म फिलहाल में इस मुद्दे को बडी खूबसूरती से दर्शाया गया है। यहां जन्म देने वाली स्त्री मां होकर भी उस बच्चे की मां कहलाने की हकदार नहीं होती। सरोगेसी की प्रक्रिया भले ही विवादास्पद रही हो, लेकिन मातृत्व की भावना पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता।
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बहुत गहरा है दिल का रिश्ता
सुष्मिता सेन, अभिनेत्री
मैं खून के रिश्ते की अहमियत को नकार नहीं सकती, पर दिल का रिश्ता भी बहुत गहरा होता है। रेने और अलिसा को भले ही मैंने जन्म नहीं दिया, पर उन्हें पाने के लिए बहुत संघर्ष किया है। छोटी बेटी अलिसा के लिए तो मुझे काफी कानूनी लडाइयां लडनी पडीं। क्योंकि हमारे देश में किसी को भी दूसरी बेटी गोद लेने से पहले जुवेनाइल कोर्ट से अनुमति लेनी होती है। इसके लिए ढेर सारी कानूनी औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं। हर औरत के भीतर मातृत्व की भावना प्राकृतिक रूप से मौजूद होती है। घर के कामकाज में सहायता के लिए मेरे पास दो-तीन हेल्पर हैं। फिर भी अपनी दोनों बेटियों के लिए कुकिंग से लेकर उन्हें तैयार करने तक का सारा काम मैं खुद ही करती हूं। इससे मैं स्वयं को अपनी बेटियों के ज्यादा करीब महसूस करती हूं। जब तक काम की मजबूरी न हो, मैं रेने और अलिसा को एक भी पल के लिए अकेली नहीं छोडना चाहती। खास अवसरों पर उन्हें अपने साथ जरूर ले जाती हूं। अलिसा तो अभी बहुत छोटी है, लेकिन रेने के साथ मेरे संबंध बेहद सहज हैं। अगर वह कोई गलती करती है तो मैं दूसरी मम्मियों की तरह उसे डांटती हूं। अच्छे काम पर उसकी प्रशंसा भी करती हूं। उसके होमवर्क, रिजल्ट और स्कूल की एक्टिविटीज आदि पर नजर रखती हूं। मैं इस बात से इत्तफाक नहीं रखती कि जन्म देने वाली मां के साथ बच्चे की इमोशनल बाउंडिंग ज्यादा मजबूत होती है। मैं खुद को अपनी बेटियों के प्रति ज्यादा जिम्मेदार महसूस करती हूं। गोद लिए बच्चे से उसके अतीत की सच्चाई को ज्यादा समय तक छिपाया नहीं जा सकता। वक्त के साथ वह इस सच्चाई से खुद ही परिचित हो जाता है। अब यह मां की जिम्मेदारी है कि वह ऐसा अवसर ही न आने दे कि उसे दूसरों के जरिये अपना अतीत जानने की जरूरत महसूस हो। बच्चे को इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि मां ने उसे जन्म दिया है या नहीं? उसे तो बस, ढेर सारा प्यार चाहिए।
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मेरी जिंदगी हैं बच्चे
अंजिना राजगोपाल, सामाजिक कार्यकर्ता
मैं मूलत: केरल की रहने वाली हूं। बचपन से हीमुझे बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। हम तीन बहनें और तीन भाई हैं। मेरी दो बहनें मुझसे बडी हैं और तीनों भाई छोटे हैं। दोनों बडी बहनों की शादी के बाद ब्रेन ट्यूमर से मेरी मां का देहांत हो गया। उसके बाद पार्किसंस की बीमारी से लंबे समय तक जूझने के बाद पिताजी का भी स्वर्गवास हो गया।
मेरे ऊपर अपने छोटे भाइयों की परवरिश की जिम्मेदारी थी। इसलिए मन में कभी शादी का खयाल ही नहीं आया। जब मेरे छोटे भाई आत्मनिर्भर हो गए तो मैं भी रोजगार की तलाश में दिल्ली आ गई।
फिर एक छोटी सी घटना ने मेरी जिंदगी का रुख बदल दिया। बात उन दिनों की है, जब मैं एक अंग्रेजी अखबार में जॉब करती थी। एक रोज ऑफिस से लौटते वक्त मैंने रास्ते में देखा कि एक विकलांग बच्चे को कोई दुकानदार बुरी तरह पीट रहा था। यह देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। मैं उस बच्चे को अपने साथ घर लेती आई और उसकी देखभाल करने लगी। फिर मैंने जरूरतमंद बच्चों के लिए काम करने के बारे में सोचना शुरू किया। इसके लिए मैंने प्रदान नामक एक स्वयंसेवी संस्था से बात की। तब मुझे इस संस्थान की ओर से तीन महीने की फेलोशिप मिली। इस दौरान मैंने देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित अनाथालयों मे जाकर उनकी कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश की। उसके बाद मैंने जॉब छोडकर साई कृपा संस्था की शुरुआत की। शुरुआत में पुलिस या कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं अनाथ या गुमशुदा बच्चों को हमारे पास लेकर आती थीं। इस तरह हमारे पास काफी बच्चे आने लगे। हमारी संस्था को 23 वर्ष पूरे हो चुके हैं। अब तक लगभग 150 बच्चे यहां से निकलकर सेटल हो चुके हैं। जब तक लडके जॉब नहीं करते और लडकियों की शादी नहीं हो जाती, वे पूरी तरह हमारे संरक्षण में रहते हैं। इसके बाद भी अगर उन्हें कोई समस्या होती है तो हम उनकी मदद करते हैं। शादी के बाद जब लडकियां मुझसे मिलने आती हैं तो बहुत खुशी होती है। अब तो ये बच्चे ही मेरी जिंदगी हैं।