बच्चों को पूरा प्रेम दिया जाए, उनकी हर मांग जुबान से निकलने के पहले पूरी भी कर दी जाए तो भी वे अक्सर हमारे नियंत्रण से बाहर हो ही जाते हैं। ये समस्या आजकल हर दूसरे परिवार में है कि संतानों को सारे सुख-सुविधा देने के बाद भी एक समय ऐसा आता है जब माता-पिता और परिवार का महत्व बच्चों के लिए कम हो जाता है।

आखिर हमारी परवरिश में कहां कमी रह जाती है। वो कौन सी बात है जो हम बच्चों को सीखाना चूक जाते हैं। वो चीज है भक्ति। संतानों के जीवन में भक्ति का प्रवेश बालकाल में ही हो जाए तो बेहतर होता है।
भक्ति संस्कार तो देती ही है, संवेदनाओं को भी तीव्र करती है।

भगवान कृष्ण ने अपना बचपन दो गांवों में गुजारा। पहला था गोकुल और दूसरा वृंदावन। भगवान कृष्ण के बचपन को गौर से देखिए। गोकुल में उन्हें खूब प्रेम मिला। ग्वाल, गोपियां, गोकुलवासी उनके दर्शन के लिए हमेशा बहाने खोजते थे। कृष्ण के जीवन के पहले पांच साल प्रेम में गुजरे।

हमारी संतानों के जीवन के पहले पांच साल प्रेम में गुजरें। उन्हें खूब स्नेह और आत्मीयता से पाला जाए। जैसे गोकुल में भगवान कृष्ण को प्रेम मिला। पांच साल की उम्र में दैत्यों के आक्रमण को देखते हुए गोकुलवासियों ने वृंदावन की ओर रूख किया। सब गोकुल छोड़कर वृंदावन में आ गए। वृंदावन भक्ति का प्रतीक है।

पांच साल तक बालक अबोध होता है। सांसारिक भावों को वो आत्मसात नहीं कर पाता लेकिन पांच साल की उम्र तक आते आते सांसारिक दोष भी उसे घेरने लगते हैं। यह वह समय होता है जब उसे एक घेरे की आवश्यकता होती है। ये घेरा होता है भक्ति का। बच्चे को भक्ति की ओर ले जाएं। वृंदावन में कृष्ण की भक्ति की गई।

भक्ति का भाव मन में आते ही सारी सकारात्मक संवेदनाएं जागृत होती हैं। रिश्तों की मर्यादा और मूल्य दोनों का आभास होने लगता है। अपने बच्चों में भक्ति का संचार करें। ये बचपन में ही संभव है।