कोई अपना नहीं है !!

कोई अपना नहीं है
इस दुनिया के भीड़ में,
आस्तीन में  खंजर लिए बैठे सब
मौके की तहजीर में,
क्या दोस्त क्या दुश्मन
क्या अपना क्या पराया
सब के सब जुड़े है एक ही जंजीर में,
गलतियाँ तो मैंने की जो
सब को अपना समझ बैठा,
अपने ही हाथों से अपनी
दिल के मासूमियत को लुटा बैठा,
हिसाब किया जो आज
हमने इनके जख्मों का,
खुद में उलझ गया मानो 
शतरंज का हारा हुआ वजीर में,
कोई अपना नहीं है
इस दुनिया के भीड़ में,
आस्तीन में  खंजर लिए बैठे
सब मौके की तहजीर में !
बेमतलब की लगती है ये दुनिया,
हर शाख पे बैठा है उल्लू,
जहाँ भरोसों का खून करती
दिखती है ओर उनकी ये गलियां,
कर के क़त्ल मेरे सादगी का
बढ़ा ले एक ओर नाम
अपने खुदगर्जी के जागीर में, 
कोई अपना नहीं है
इस दुनिया के भीड़ में,
आस्तीन में  खंजर लिए बैठे
सब मौके की तहजीर में !
जी तो करता है आज
तुम जैसा ही बन जाऊं,
ओर तबाह कर दूं
तुम जैसे की वजूद को
पर ये मुमकिन नहीं ,
तेरा इमान होगा दौलत खुदगर्जी,
पर मेरी तो चाहता हैं
आज भी तू वहां से वापस हो जा
बन के मेरा मुजरिम ही सही,
देख कैसे गले लगाने तो
अब भी बैठा हूँ तुझे
तेरे ही हांथों से लुट जाने के बाद फकीर में,
कोई अपना नहीं है इस दुनिया के भीड़ में,
आस्तीन में  खंजर लिए बैठे सब
मौके की तहजीर में !!

 
--अजय ठाकुर, नई दिल्ली