दर्द को हम बाँट लेंगे !!!

तुम्हें क्या लगता है
मुझे शाखों से गिरने का डर है
तुम्हें ऐसा क्यूँ लगता है
कैसे लगता है
तुमने देखा न हो
पर जानते तो हो
मैं पतली टहनियों से भी फिसलकर निकलना
बखूबी जानती हूँ ....

डर किसे नहीं लगता
क्यूँ नहीं लगेगा
क्या तुम्हें नहीं लगता ...
तुम्हें लगता है
मैं जानती हूँ !

संकरे रास्तों से निकलने में तुम्हें वक़्त लगा
मैं धड़कते दिल से निकल गई
बस इतना सोचा - जो होगा देखा जायेगा ...
होना तय है , तो रुकना कैसा !


एक दो तीन ... सात समंदर नहीं
सात खाइयों को जिसने पार किया हो
उसके अन्दर चाहत हो सकती है
असुरक्षा नहीं ...
और चाहतें मंजिल की चाभी हुआ करती हैं !

स्त्रीत्व और पुरुषार्थ का फर्क है
वह रहेगा ही
वरना एक सहज डर तुम्हारे अन्दर भी है
मेरे अन्दर भी ...
तुम्हारे पुरुषार्थ का मान यदि मैं रखती हूँ
तो मेरे स्त्रीत्व का मान तुम भी रखो
न तुम मेरा डर उछालो
न मैं ....
फिर हम सही सहयात्री होंगे
एक कांधा तुम होगे
एक मैं ..... दर्द को हम बाँट लेंगे !!!



--रश्मि प्रभा, पटना