क्या करू आदत से मजबूर हूँ.
अजीज मेरे आजिज हैं मुझसे
कभी-कभी कह देते हैं मुख से.
गलती कोई बड़ी नही,
सत्य बात कहता हूँ.
दिन को दिन कहता हूँ,
और रात को रात कहता हूँ.
वह उतना बड़ा सोह्दा है,
सनकी और बेहूदा है.
बड़े बुजुर्ग फरमाते हैं
मगर यह कहते शर्माते हैं,
देश गुलाम था,आराम था,
वे घास-पात तक चबाते हैं.
उनकी आंतें कितनी मजबूत है
कई घोटाले इसके सबूत हैं.
हम गाली से भी डरते हैं,
वे हथकड़ी में भी हँसते हैं.
हँसते ही नही ठहाके लगाते हैं
अपने गुनाहों पर नहीं पछताते हैं
चुनौती देते हैं कोर्ट में
मगर विश्वास है उन्हें नोट में.
--पी० बिहारी 'बेधड़क'