रविवार विशेष-कविता-वो सारे ज़ख़्म पुराने, बदन में लौट आए


वो सारे ज़ख़्म पुराने, बदन में लौट आए

गली से उनकी जो गुज़रे, थकन में लौट आए

हवा उड़ा के कहीं दूर ले गई जब भी
सफ़र तमाम किया और वतन में लौट आए

जो शहरे इश्क था, वो कुछ नहीं था, सहरा था
खुली जो आँख तो हम फिर से वन में लौट आए

बहार लूटी है मैंने कभी, कभी तुमने
बहाने अश्क़ भी हम ही चमन में लौट आए

ये किसने प्यार से बोसा रखा है माथे पर
कि रंग, ख़ुशबू, घटा, फूल, मन में लौट आए

गए जो ढूँढने खुशियाँ तो हार कर "श्रद्धा"
उदासियों की उसी अंजुमन में लौट आए
श्रद्धा जैन, सिंगापुर