यशोदा से कम नहीं है सुनीता का जज्बा

सुपौल , जन्म देने वाली ही अगर मा होती यशोदा का नंदलाला बृज का उजाला नहीं होता। यह दर्जा देवकी को हासिल हो जाता। जिला मुख्यालय में भी ऐसे यशोदाओं की कमी नहीं है जिन्होंने अपनी संतानों के अलावा वैसी संतानों पर भी स्नेह सुधा बरसाई है जिसे जनने वाली मां ने या तो समाज के डर से या फिर दहेज के भय से फुटपाथों पर छोड़ दिया। आलम यह है कि क्या मजाल कोई इसे गैर का बच्चा कह दे।
बात 13 सितंबर 2007 की है। अन्य दिनों की तरह निरालानगर काली मंदिर के पास एक नवजात के रोने की आवाज सुनाई दे रही थी। अन्य लोगों के अलावा यह आवाज उसी जगह पर पान की दूकान चलाने वाले कुंदन मंडल की अनपढ़ पत्‍‌नी सुनीता को भी सुनाई दी। धीरे-धीरे मंदिर प्रांगण में लोगों की भीड़ जुटने लगी। कोई उस मां को कलयुगी की संज्ञा दे रहे थे जिसने बच्ची को यहां छोड़ा। कुछ लोग दहेज प्रथा का कारण मान रहे थे। लेकिन इन सब बातों से दूर सुनीता के मन में मां की ममता मचल रही थी। लेकिन फिर उसे अपने दो संतानों के परवरिश और गुजारे के लिए एक दूकान की याद आ रही थी। अंतत: ममता ने जोड़ मारा और वह बच्ची को उठाकर छाती से लगा लिया। फिर क्या था एक बार छाती से लगाते ही ममता सागर उमड़ने लगा और वह उसे लेकर घर आ गई। काली मंदिर में वह मिली इसलिए उसका नाम कालिका रख दिया। आज वह चार वर्ष की है। सुनीता रोज सुबह उसे 9 बजे तैयार का आंगनबाड़ी केंद्र पढ़ने को भेजती है। पड़ोस के राजकुमार मंडल, महावीर मंडल, दिलीप मंडल के अनुसार सुनीता की बड़ी बेटी पिंकी और छोटी कालिका में कोई भेद नहीं कर सकता। अगर कोई कह दे कि यह बच्ची मिली हुई है तो वह लड़ाई करने पर उतारू हो जाती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है यशोदा से कम नहीं है सुनीता का जज्बा, उनके जज्बे को सलाम।