कविता- मन

मन
एक हूँ मैं और एक है मन
सीमित हूँ मैं,व्यापक है मन.
मेरी दुनिया बस है मुझ तक,
मन की दुनिया नील गगन तक.
इच्छाओं को पंख लगे हैं,
पहुँच नही पाती हूँ मन तक.
दबा हुआ है बोझ तले तन
पर उड़ने को आतुर है मन.
एक हूँ मैं और एक है मन.....
तन पर शासन हो सकता है,
मन पर क्या हो पाता है?
बंधन कितने ही तुम डालो
मन क्षण में उड़ जाता है.
दुःख में ही डूबे हो क्यों ना;
मन फिर भी मुस्काता है.
मन की समग्र वेदना पर
मन ही हावी हो जाता है.
हर पल,हर क्षण,सुबह-शाम
नित गीत सुहाने गाता है मन.
एक हूँ मैं और एक है मन.....
   --जूही शहाब,पुणे(madhepura times)